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George Frederick Samuel Robinson, 1st Marquess of Ripon, 1827-1909
jp Singh 2025-05-27 16:55:12
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लॉर्ड रिपन का शासनकाल (1880-1884)

लॉर्ड रिपन का शासनकाल (1880-1884)
लॉर्ड रिपन (जॉर्ज फ्रेडरिक सैमुअल रॉबिन्सन, प्रथम मार्क्वेस ऑफ रिपन, George Frederick Samuel Robinson, 1st Marquess of Ripon, 1827-1909) भारत के वायसराय और गवर्नर-जनरल के रूप में जून 1880 से दिसंबर 1884 तक कार्यरत रहे। वे लॉर्ड लिटन के उत्तराधिकारी थे और अपने उदारवादी और सुधारवादी दृष्टिकोण के लिए जाने जाते हैं। लॉर्ड रिपन को भारत में स्थानीय स्वशासन की नींव रखने, शिक्षा सुधारों को बढ़ावा देने, और वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट को रद्द करने के लिए विशेष रूप से याद किया जाता है। उनके शासनकाल को
1. पृष्ठभूमि और नियुक्ति
पृष्ठभूमि: लॉर्ड रिपन एक ब्रिटिश लिबरल राजनेता थे, जिन्होंने ब्रिटिश सरकार में कई महत्वपूर्ण पदों पर कार्य किया था। वे ब्रिटिश संसद में लिबरल पार्टी के सदस्य थे और 1863-1866 तक भारत मंत्रालय के सचिव रहे थे। उनकी उदारवादी विचारधारा और भारतीयों के प्रति सहानुभूति ने उन्हें भारत के लिए एक उपयुक्त वायसराय बनाया।
नियुक्ति: लॉर्ड लिटन के जून 1880 में इस्तीफे के बाद, लॉर्ड रिपन को भारत का वायसराय और गवर्नर-जनरल नियुक्त किया गया। उनका कार्यकाल दिसंबर 1884 तक चला। उद्देश्य: रिपन का मुख्य उद्देश्य लॉर्ड लिटन की अलोकप्रिय नीतियों (जैसे वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट और अफगान युद्ध) के प्रभाव को कम करना, भारतीयों को प्रशासन में अधिक भागीदारी देना, और शिक्षा, स्थानीय स्वशासन, और आर्थिक सुधारों को बढ़ावा देना था।
2. शासनकाल की प्रमुख विशेषताएं
लॉर्ड रिपन का शासनकाल भारत में उदारवादी सुधारों और भारतीयों की प्रशासनिक भागीदारी को बढ़ाने के लिए जाना जाता है। उनके कार्यकाल में कई महत्वपूर्ण नीतियां और सुधार लागू किए गए।
2.1. स्थानीय स्वशासन (Local Self-Government)
रिपन रिजॉल्यूशन (1882): लॉर्ड रिपन ने 1882 में स्थानीय स्वशासन की नीति शुरू की, जिसे
2.2. वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट का निरसन (1882)
प्रेस स्वतंत्रता: लॉर्ड लिटन द्वारा 1878 में लागू वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट, जिसने भारतीय भाषाओं के समाचार पत्रों पर सख्त सेंसरशिप लगाई थी, को लॉर्ड रिपन ने 1882 में रद्द कर दिया। यह भारतीय प्रेस और बुद्धिजीवियों के लिए एक बड़ा कदम था। प्रभाव: इस निर्णय ने भारतीय प्रेस को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता दी और राष्ट्रीय चेतना को बढ़ावा दिया। दिल्ली में उर्दू और अन्य भारतीय भाषाओं के समाचार पत्रों को फिर से स्वतंत्रता मिली, जिसने स्थानीय बुद्धिजीवियों को प्रोत्साहित किया।
2.3. इल्बर्ट बिल विवाद (1883)
इल्बर्ट बिल: लॉर्ड रिपन ने 1883 में इल्बर्ट बिल पेश किया, जिसका उद्देश्य भारतीय और यूरोपीय लोगों के लिए न्यायिक समानता लाना था। इस बिल के तहत भारतीय जजों को यूरोपीय लोगों के आपराधिक मामलों की सुनवाई का अधिकार दिया जाना था। विवाद: इस बिल का यूरोपीय समुदाय (विशेष रूप से बंगाल के चाय बागान मालिकों) ने तीव्र विरोध किया, क्योंकि वे भारतीय जजों के अधिकार को स्वीकार नहीं करना चाहते थे। इस विरोध ने नस्लीय भेदभाव को उजागर किया। समझौता: विरोध के दबाव में बिल को संशोधित किया गया, और यूरोपीय लोगों को भारतीय जजों के समक्ष जूरी ट्रायल का अधिकार दिया गया। इस समझौते ने भारतीयों में असंतोष पैदा किया। प्रभाव: इल्बर्ट बिल विवाद ने भारतीयों में राष्ट्रीय चेतना को और जागृत किया और ब्रिटिश शासन के नस्लीय भेदभाव को उजागर किया। दिल्ली में इस विवाद ने स्थानीय बुद्धिजीवियों और नेताओं को राष्ट्रीय आंदोलन के लिए प्रेरित किया।
2.4. शिक्षा सुधार
हंटर कमीशन (1882): लॉर्ड रिपन ने 1882 में सर विलियम हंटर की अध्यक्षता में एक शिक्षा आयोग गठित किया, जिसे
2.5. आर्थिक और बुनियादी ढांचा विकास
रेलवे और टेलीग्राफ: लॉर्ड रिपन के शासनकाल में रेलवे और टेलीग्राफ नेटवर्क का विस्तार जारी रहा। दिल्ली को रेलवे के माध्यम से ब्रिटिश भारत के अन्य हिस्सों, जैसे कलकत्ता, बंबई, और लाहौर, से और बेहतर ढंग से जोड़ा गया। इससे दिल्ली का व्यापारिक और प्रशासनिक महत्व बढ़ा। सिंचाई: रिपन ने सिंचाई परियोजनाओं को प्रोत्साहन दिया, विशेष रूप से पंजाब और उत्तर भारत में। गंगा नहर और अन्य परियोजनाओं का विस्तार हुआ, जिसने दिल्ली के आसपास के ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि को बढ़ावा दिया। आर्थिक नीतियां: लॉर्ड रिपन ने कर प्रणाली को और अधिक निष्पक्ष बनाने की कोशिश की। उन्होंने लॉर्ड लिटन की कर वृद्धि की नीतियों को कम करने का प्रयास किया, जिससे जनता पर आर्थिक बोझ कम हुआ। दिल्ली में चांदनी चौक जैसे बाजार व्यापारिक केंद्र बने रहे, लेकिन स्थानीय कारीगरों और व्यापारियों पर ब्रिटिश नीतियों का प्रभाव पड़ रहा था।
2.6. अकाल और राहत कार्य
अकाल प्रबंधन: लॉर्ड लिटन के समय के विपरीत, रिपन ने अकाल राहत कार्यों को अधिक प्रभावी ढंग से प्रबंधित करने की कोशिश की। उन्होंने अकाल प्रभावित क्षेत्रों में राहत शिविरों और अनाज वितरण की व्यवस्था की। 1880-84 के दौरान कोई बड़ा अकाल नहीं हुआ, लेकिन छोटे-मोटे अकालों और सूखे की स्थिति में रिपन की नीतियां अधिक संवेदनशील थीं। प्रभाव: दिल्ली और आसपास के क्षेत्रों में अकाल राहत कार्यों ने स्थानीय जनता में ब्रिटिश शासन के प्रति कुछ विश्वास पैदा किया।
2.7. विदेश नीति
द्वितीय आंग्ल-अफगान युद्ध का समापन: लॉर्ड लिटन के समय शुरू हुआ द्वितीय आंग्ल-अफगान युद्ध (1878-1880) लॉर्ड रिपन के कार्यकाल में समाप्त हुआ। 1880 में अब्दुर रहमान खान को अफगानिस्तान का अमीर बनाया गया, और ब्रिटिशों ने अफगानिस्तान से अपनी सेना वापस बुला ली। रिपन ने अफगानिस्तान के साथ संयमपूर्ण नीति अपनाई और रूस के साथ तनाव को कम करने की कोशिश की। उत्तर-पश्चिमी सीमांत नीति: रिपन ने लॉर्ड जॉन लॉरेंस और नॉर्थब्रूक की
2.8. दिल्ली में प्रभाव
प्रशासनिक ढांचा: दिल्ली पंजाब प्रांत के अधीन एक जिला बनी रही। रिपन की स्थानीय स्वशासन नीति ने दिल्ली में नगरपालिका प्रशासन को और व्यवस्थित किया। स्थानीय भारतीय प्रतिनिधियों को नगरपालिका में शामिल किया गया। सैन्य नियंत्रण: लाल किला और अन्य रणनीतिक स्थल ब्रिटिश सेना के नियंत्रण में रहे। दिल्ली को एक महत्वपूर्ण सैन्य केंद्र बनाए रखा गया, ताकि 1857 जैसे विद्रोह की पुनरावृत्ति न हो। सांस्कृतिक परिवर्तन: दिल्ली की मुगलकालीन सांस्कृतिक पहचान, जैसे उर्दू साहित्य और मुशायरे, कमजोर पड़ रही थी। रिपन के शासनकाल में अंग्रेजी शिक्षा और स्थानीय भाषाओं में शिक्षा को बढ़ावा दिया गया, जिसने दिल्ली में शैक्षिक संरचना को बदला। आर्थिक विकास: दिल्ली में रेलवे और सड़क नेटवर्क का विकास हुआ, जिसने शहर को ब्रिटिश भारत के अन्य हिस्सों से जोड़ा। चांदनी चौक जैसे बाजार व्यापारिक केंद्र बने रहे। रिपन की सिंचाई परियोजनाओं ने दिल्ली के आसपास के ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि को बढ़ावा दिया।
3. कार्यकाल का अंत और इस्तीफा
इस्तीफा: लॉर्ड रिपन ने दिसंबर 1884 में वायसराय के पद से इस्तीफा दे दिया। उनका कार्यकाल उदारवादी सुधारों के लिए जाना जाता है, लेकिन इल्बर्ट बिल विवाद और यूरोपीय समुदाय के विरोध ने उनकी स्थिति को जटिल बनाया।
उत्तराधिकारी: उनके बाद लॉर्ड डफरिन (फ्रेडरिक हैमिल्टन-टेम्पल-ब्लैकवुड) दिसंबर 1884 में भारत के वायसराय और गवर्नर-जनरल बने।
मृत्यु: लॉर्ड रिपन की मृत्यु 9 जुलाई 1909 को इंग्लैंड में हुई।
4. ऐतिहासिक महत्व
उदारवादी शासन: लॉर्ड रिपन को भारत में सबसे उदारवादी वायसरायों में से एक माना जाता है। उनकी स्थानीय स्वशासन और प्रेस स्वतंत्रता की नीतियों ने भारतीयों को प्रशासन में भाग लेने का अवसर दिया। स्थानीय स्वशासन: रिपन रिजॉल्यूशन ने भारत में स्थानीय स्वशासन की नींव रखी, जो बाद में राष्ट्रीय आंदोलनों और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (1885) की स्थापना का आधार बना। इल्बर्ट बिल विवाद: इस विवाद ने ब्रिटिश शासन के नस्लीय भेदभाव को उजागर किया और भारतीयों में राष्ट्रीय चेतना को जागृत किया। दिल्ली का विकास: दिल्ली में उनके शासनकाल में स्थानीय प्रशासन को और व्यवस्थित किया गया। स्थानीय स्वशासन की नीति ने दिल्ली नगरपालिका को अधिक जिम्मेदारियां दीं, जिसने शहर का प्रशासनिक महत्व बढ़ाया। स्वतंत्रता संग्राम की पृष्ठभूमि: रिपन की उदार नीतियों ने भारतीय बुद्धिजीवियों और मध्यम वर्ग में राष्ट्रीय चेतना को प्रोत्साहित किया, जो बाद में स्वतंत्रता आंदोलनों का आधार बना।
5. विरासत
लॉर्ड रिपन को भारत में
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